“आप अकेले अवतरे, मरे अकेला होय। यों कबहूँ इस जीव को, साथी-सगा न कोय।

ये पंक्तियाँ जैन धर्म की बारह भावना से हैं और बताती हैं कि हम इस दुनिया में अकेले आए हैं और अंत में अकेले ही जाएंगे। मुझे इस पंक्ति का पूरा मतलब तो नहीं पता, लेकिन मेरी समझ से इसका अर्थ यह है कि किसी भी रिश्ते या बाहरी चीज़ पर पूरी तरह निर्भर रहना सही नहीं है।

इसका ये मतलब नहीं है कि हमें किसी का साथ नहीं चाहिए या हम दूसरों से जुड़े नहीं हैं। बल्कि, ये सिखाता है कि हमें खुद को समझना और सुधारना होगा। अपनी खुशियों और संतोष का जिम्मा खुद उठाना होता है। अगर हम सोचते हैं कि कोई और हमें पूरी तरह खुश कर सकता है, तो ये हमारी गलतफहमी है। माता-पिता, पति-पत्नी या दोस्त हमारे जीवन में महत्वपूर्ण हो सकते हैं, पर असली खुशी और संतोष हमारे अपने भीतर से ही आता है।

ये विचार हमें आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता का महत्व समझाता है। दूसरों से मदद मिल सकती है और मिलनी भी चाहिए, लेकिन असली जिम्मेदारी हमारी खुद की होती है। जब हम खुद को समझकर अपने जीवन को सही दिशा देते हैं, तो हम हर परिस्थिति में संतुलन बनाए रखते हैं और अपने जीवन को सही मायनों में जी पाते हैं।